मेवाड़ चित्रकला शैली(mewar style of painting)

मेवाड़ चित्रकला शैली (mewar style of painting)

मेवाड़ चित्र शैली

मेवाड़ चित्रकला शैली (mewar style of painting)

मेवाड़ की स्थिति –

मेव अथवा मेर जाति के विकास तक इस क्षेत्र में निवास करने के कारण इसे ‘मेवाड़’ एवं ‘मेदपाट’ कहा जाता रहा। यह दोनों शब्द10वीं शताब्दी से प्रचलित रहे हैं। अरावली पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य स्थित मेवाड़ भूखण्ड. जो सन् 1948 ई. में राजस्थान प्रदेश में विलय हुआ, आज चित्तौड़, उदयपुर एवं भीलवाड़ा जिलों में वर्गीकृत है।

मेवाड़ चित्रकला शैली (mewar style of painting) –

मेवाड़ क्षेत्र चित्रकला के प्रति कभी उदासीन नहीं रहा।आहड़ आदि स्थानों से प्राप्त प्राचीनतम (प्राय: 2000 ई.पू.) चित्रावेश इसके साक्षी हैं। यहाँ की चित्रकला के प्रारम्भिक नमूनों में  श्रावकप्रति क्रमणसूत्रचूर्णी का नाम आता है, जो वि.स. 1317 (1260 ई.) में उदयपुर के आहड़ स्थान पर ही ‘गुहिल्ल तेजसिंह’ के समय चित्रित हई थी।

महाराणा लाखा’, ‘मोकल’ एवं ‘कुम्भा’ का काल आन्तरिक शांति का काल था। इस समय चित्रकला का दूसरा सचित्र ग्रन्थ ‘कल्पसूत्र’ 1418 ई. है, जो सोमेश्वर ग्राम ‘मोहवाड़’ में चित्रित किया गया। मेवाड़ चित्रकला शैली (mewar style of painting)

शैली के आरम्भिक चित्र अपभ्रंश शैली में निर्मित जैन ग्रन्थ ‘सुपांसनाह चरियम्’ (सुपार्श्वनाथचरितम्) में मिलते हैं। इसका रचनाकाल सन् 1423 ई. है। ‘

गीत-गोविन्द आरण्यायिका’ एक अन्य सचित्र ग्रन्थ है, जो अभी हाल ही में प्राप्त हुआ है। यह मेवाड़ के ‘गोगुन्दा नामक स्थान पर चित्रित हुआ है। ग्रन्थ में प्रयुक्त भाषा के आधार पर इसका समय सन् 1455 ई. निश्चित किया जा सकता है। चित्रण की शैली भी इसी समय की हामी भरती है।

इस प्रकार मेवाड़ चित्रकला शैली (mewar style of painting)  के ये प्रारम्भिक उदाहरण हैं, जहाँ से मेवाड़ चित्रकला शैली (mewar style of painting) का सुरम्य स्वरूप उभरा। इस शैली का उजला रूप हमें सन् 1540 ई. का ‘विल्हण कृत चौरपंचाशिका  के चित्रों में देखने को मिलता है। ‘चम्पावती विल्हण’ नामक चित्र  यह ग्रन्थ ‘प्रतापगढ़’ में चित्रित हुआ है। ‘डगलस ‘चौरपंचाशिका ग्रंथ’ के चित्रों में  इसका सुन्दर उदाहरण है।

मेवाड़ चित्रकला शैली के चित्र

मेवाड़ चित्रकला शैली (mewar style of painting)

कुम्भा (1433-1468 ई.) का शासनकाल मेवाड़ के इतिहास में कला का स्वर्ण युग गया है। महाराणा कुम्भा स्वयं कवि, कला संरक्षक एवं संगीतज्ञ थे। आपके डन द्वारा रचित देवतामूर्ति प्रकरण, राजवल्लभ मंडन, प्रसाद मंडन, रूप मंडन मूर्तिकला के साथ रंगों की भी जानकारी दी गई है। राजवल्लभ मंडन में तो सामग्री भरी पड़ी है।

महाराणा कुम्भा के स्वरचित ग्रन्थ ‘संगीत राज’ में का उल्लेख है। आपने गीत-गोविन्द, बालगोपाल स्तुति  ग्रन्थों आदि कई सुन्दर ग्रन्थों की रचना करवाई। चित्तौड़ व स्मारक आज भी कुम्भा संस्कृति के जीवन्त उदाहरण हैं।

राणा कुम्भा के पश्चात् ‘राणा सांगा’ गददी पर बैठा। इसके पश्चात् ‘संग्राम  मेंवाड़ की सत्ता को और अधिक सदढ बनाया और उसने बाबर से युद भी राणा के पुत्र ‘भोजराज’ का विवाह मीराबाई से सम्पन्न हुआ ‘मीराबाई के गाये भक्ति पद आज भी गुजरात ‘बुदलखण्ड तथा राजस्थान के लोकप्रिय गीत हैं।

राणा उदयसिंह’ (1535-1572 ई.) ने अकबर के आक्रमणों का सामना तो किया परन्तु उन्हें अपनी राजधानी चित्तौड़ को छोड़ना पड़ा और सामरिक महत्त्व को ।

नवीन राजधानी उदयपुर की स्थापना करनी पड़ी। इस काल में बने चित्रों में भी का परिजात अवतरण (1540 ई.) मेवाड़ चित्रकला शैली (mewar style of painting) के चित्रकार ‘नानाराम’ की कृति है जो । के नस्ली हारा मानिक संग्रह में सुरक्षित है। राणा उदयसिंह के उत्तराधिकारी ‘महाणा प्रताप’ (1572-1596 ई.) ने मुगलों से लोहा लिया और छप्पन की पहाडियों में। चावण्ड को अपनी राजधानी बनाया।

इस काल में मुगल शैली से प्रभावित सचित्र ग्रन्थों में प्राचीनतम कृति ‘ढोलामारू’ (1592 ई.) है, जो राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में सुरक्षित है। इस प्रकार मेवाड़ के बदलते राजनीतिक परिवेश में कुम्भलगढ़, चित्तौड़गढ, चावट एवं उदयपुर प्रारम्भिक मेवाड़ी चित्रकला के केन्द्रों के रूप में उभरे।

‘राणा अमरसिंह प्रथम (1597-1620 ई.) ने मुगलों की आंशिक अधीनता स्वीकारी। इस काल के सन् 1605 है के ‘रागमाला’ के चित्र ‘चावण्ड’ में निर्मित हये।” इन चित्रों को ‘निसारदीन’ नामक चित्रकार ने चित्रित किया। इन चित्रों पर मुगलिया प्रभाव छन-छन कर आने लगा था। ‘डॉ.मोती चन्द्र’ के अनुसार इन चित्रों में भारत की 15वीं शताब्दी तक विकसित होने वाली पश्चिमी चित्रांकन शैली के अवशेषों के दर्शन होते हैं।

जिसको प्रसिद्ध कलाकार ‘पी.एन. चोयल’ ने ‘गुर्जर शैली’ कहा है। इन चित्रों में चमकीले चटकदार रंगों का प्रयोग हुआ है तथा मुखाकृति एवं वेशभूषा के अंकन में कोणात्मकता दिखाई देती है। यह सिलसिला ‘कर्णसिंह’ व ‘जगतसिंह प्रथम’ के शासन में बढ़ता गया।

अमरसिंह के प्रथम पुत्र ‘कर्णसिंह’ (1620-1628 ई.) के समय मुगलों से और पर्याप्त संबंध स्थापित हुए। इस काल में स्थापत्य कला का विकास अधिक हुआ। ‘मर्दाना महल’ एवं ‘जनाना महल’ का निर्माण हुआ।

कर्णसिंह के उत्तराधिकारी राजा ‘जगतसिंह प्रथम’ (1628-1652 ई.) साहित्य, स्थापत्य कला एवं संस्कृति के महान् उन्नायकों में से थे। आपने जगदीश मन्दिर का निर्माण करवाया एवं उदयपुर महल को पूर्ण करवाया।

आपको शाहजहाँ ने अनेक भेंट और उपाधियाँ प्रदान की, परन्त इस काल में वल्लभ सम्प्रदाय के प्रसार के कारण श्री कृष्ण के जीवन से संबंधित चित्रों का निर्माण अधिक हुआ। इस काल में चित्रित ‘रागमाला’ (1628 ई.) राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली में है।

‘रसिक प्रिया’ (1628-30 ई.) के 21 पृष्ठ महाराजा, बीकानेर के संग्रह में हैं।’गीत गोविन्द’ (1629 ई.) ‘सूरसागर’ इत्यादि से सम्बद्ध कथानकों के चित्रों, रसिक प्रिया’, ‘बिहारी सतसई हितोपदेश’ से सम्बद्ध चित्रों ‘नायक नायिका भेद’, ‘उदयपुर महाराणाओं के व्यक्तिचित्रों’, ‘भागवत पुराण’ (1648 ई.) जो ‘साहब्दीन कलाकार’ द्वारा चित्रित है।

इसके चार स्कन्द हैं (8, 9, 11, 12). जिसके 234 पृष्ठों में 129 चित्र चटख रंगों में बने हैं। ‘रामायण’ की सचित्र प्रति ‘मनोहर कलाकार’ द्वारा चित्रित है, जो मुम्बई के ‘प्रिन्स ऑफ वेल्स संग्रहालय में सुरक्षित है। दसरी प्रति ‘सरस्वती भंडार’, उदयपुर में है। यह प्रति 1651 ई. में ‘चित्तौड़’ में लिखी गई थी और यहीं पर चित्रित भी हुई।

सन 1628 से 1652 ई. की अवधि में मेवाड़ चित्रकला शैली (mewar style of painting)  में बड़ा निखार  आ गई और 17वीं शताब्दी के अन्त तक इसने उत्कृष्ट स्तर प्राप्त कर लिया। प्रमख चित्रकार साहब्दीन और मनोहर रहे। इन चित्रकारों ने मेवाड कला को प्रदान करने में उल्लेखनीय योगदान दिया।

कार्लखण्डालावाला’ के अनुसार साहब्दीन चित्रकार के चित्रों में बनावट एवं रंग मौलीकता लिये हुये हैं और मेवाड़ चित्रकला शैली (mewar style of painting) को नई दिशा देने का श्रेय उसी को है। कहा ‘महाराणा जगतसिह’ एवं ‘महाराणा राजसिंह’ का समय चित्रकला तथा कहा जाता है कि महाराणा जगत सिंह तथा महाराणा राजसिंह का समय  विकास की दृष्टि से ‘स्वर्ण युग’ था,

परन्तु ‘राणा राजसिंह प्रथम  (1652-1680 ई.) पहले तो मुगलों से मिला रहा, परन्तु बाद में औरंगजेब की नीति से विरुद्ध हो गया और उसने मुगलों से युद्ध किया। यह युद्ध ‘सिद्ध’ स्थित की’ की मूर्ति के संबंध में हुआ। बाद में इस मूर्ति की स्थापना  सिहाड  में जो  आगे चलकर ‘नाथद्वारा’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

कालान्तर में नाथद्वारा वैष्णव कला तथा सम्प्रदाय का प्रमुख केन्द्र बन गया। राजा राजसिंह को काव्य तथा भवन में रूचि थी। सन् 1655 ई. में साहब्दीन कलाकार द्वारा चित्रित ‘शूकर क्षेत्र महात्यम’ भंडार, उदयपुर में संगृहीत तथा सन् 1659 ई. का ‘भ्रमर गीत’ महान् उपलब्धियाँकार है

इस प्रकार यह निष्कर्ष निकलता है कि महाराणा राजसिंह के काल में हिन्दी के अनेक भक्तिकालीन व रीतिकालीन काव्य संग्रह से ग्रंन्त के रूप में चित्रित हुये

राजसिंह के पश्चात् उसका पुत्र राणा ‘जयसिंह’ (1680-1698 ई.) मेवाड़ के सिंहासन पर बैठा। वह स्वतंत्र प्रकृति का शांतिप्रिय शासक था। उसमें राजसिंह जैसी योग्यता थी. परन्तु कालान्तर में वह निर्बल शासक सिद्ध हुआ।

इसके काल में लघु चित्रों का निर्माण अधिकता से हुआ। कहा जाता है कि लघु चित्रों की संख्या की दृष्टि से यह काल उल्लेखनीय है,परन्तु कलम की बारीकी और सफाई की दृष्टि से इतना ।महत्त्वपूर्ण नहीं।

इस काल में तिथियों सहित जो सामग्री प्राप्त हुई, उनमें नवलगढ़ के कुँवर संग्राम सिंह के संग्रह में उपलब्ध ‘गीत-गोविन्द’ संबंधी चित्र, श्रीमद्भागवत पुराण संबंधी श्री गोपीकृष्ण कनोडिया, पटना के संग्रह में उपलब्ध चित्र, प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, उदयपुर में। उपलब्ध अनुमानत: विक्रम संवत 1720 से 1735 (1663-1678 ई.) की समयावधि मेंचित्रित  ‘श्रीमद्भागवत के 10 चित्र’, अनुमानतः सन् 1680 से

1700 ई. के मध्य चित्रित प्रात भारत कला भवन, वाराणसी में संरक्षित ‘भागवत पुराण’ संबंधी चित्र सरस्वती भवन कालय, उदयपुर में संरक्षित ‘रागमाला’, ‘एकादशी महात्म्य’, ‘कादम्बरी’ तथा राजकीय प्रहालय, उदयपुर में संरक्षित ‘मुल्ला दो प्याजा’, ‘पृथ्वीराजरासो’, ‘रघुवश,सागर’, ‘पंचाख्यान’, ‘सारतत्त्व’, ‘सारंगधर’ से संबंधित चित्र

सत्रहवीं शताब्दा उत्तराद्ध क मेवाड़ के लघु चित्रांकन के विकास को प्रकट करते है। (1680-1710 ई.) ने शासन व्यवस्था का सुधार की दृष्टि से परिवर्तन का काल कहा जाता है।

जयसिंह के पश्चात् ‘अमरसिंह द्वितीय’ (1698-1710 ) ने शासन व्यवस्था का सुधार किया इनका  काल स्थापत्य कला एव चित्रकला का दृष्टि से परिवर्तन का काल किया। इनका काल स्थापत्य कला एवं चित्रकला सुधार के काल में बने ‘शिवप्रसन्न’ एवं ‘अमर विलास महल’ मगल र आजकल ‘बोडी महल’ के नाम से पुकारा जाता है।

राजकीय संग्रहा अमरसिंह’ कालीन चित्रों में ‘रसिक प्रिया’ के 46 लघु चित्र उल्लेखनीय है।

महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय (1710-1734 ई.) के कल में मेवाड़ चित्रकला शैली (mewar style of painting)  आयामों को छूती है। यह काल मेवाड़ में शांति और समृद्धि का युग माना जाता मुगलिया प्रभाव मेवाड़ चित्रकला शैली (mewar style of painting)  में अधिक स्पष्ट रूप से उभर कर आया जिस सरस्वती भंडार, उदयपुर में संगृहीत ‘बिहारी सतसई’ है। अन्य प्रमुख ग्रन्थों में गीत-गोविन्द ‘, ‘मुल्ला दो प्याजा’ के लतीफे और ‘कालिया दमन’ हैं।

‘महाराणा संग्राम काल के पश्चात् साहित्यिक ग्रन्थों के आधार पर ही लघु चित्रों की परम्परा लगभग समाप्त है।

तत्पश्चात् ‘महाराणा जगतसिंह’ (1734-1751 ई.) ‘महाराणा प्रताप सिंह द्वितीय 1753 ई.), ‘महाराणा राजसिंह द्वितीय’ (1753-1760 ई.), ‘महाराणा अरिसिंह’ (1760-10ई.) तथा ‘महाराजा हमीरसिंह द्वितीय’ (1773-1777 ई.) के नाम उल्लेखनीय हैं। महाराजा हमीरसिंह के काल में बड़े पन्नों’ पर चित्र बनाने की परम्परा शुरू हो गयी थी।

शिकार एवं विभिन्न त्यौहारों पर चित्र अधिक बनाये गये। मेवाड़ चित्रकला शैली (mewar style of painting)  के इतिहास का अन्तिम चरण ‘महाराणा भीमसिंह’ (1777-1828 ई.) का काल है,

जो चित्रकला के लिए विशेष उल्लेखनीय है। सन् 1818 ई. में अंग्रेजों से मेवाड (मेवाड़ चित्रकला शैली mewar style of painting) राज्य की संधि हो गई थी, जिसके कारण मेवाड़ को मराठा एवं पिण्डारियों के उत्पात से मुक्ति मिल गई थी। इस काल में ‘भित्तिचित्रों’ का निर्माण अधिकता से हुआ। मेवाड़ चित्रकला शैली(mewar style of painting)

‘मरदाना महल’, ‘बापना की हवेली’, ‘एकलिंग मंदिर’ के पीठाचार्य के निजी निवास स्थान पर बने भित्तिचित्रों तथा ‘कुम्भलगढ़’, ‘नाथद्वारा’ में बने भित्तिचित्र प्रमुख हैं। इस काल का एक महत्त्वपूर्ण एलबम, राजकीय संग्रहालय, उदयपुर में संगृहीत है, जिसमें मेवाड़ के राजाओं’ के अतिरिक्त ‘मीरा’ का चित्र भी विद्यमान है। यह भक्ता कलाकार द्वारा चित्रित है

‘महाराणा भीमसिंह का जुलूस’ साहब्दीन कलाकार द्वारा चित्रित है। इस प्रकार मेवाड़ चित्रकला शैली (mewar style of painting) की मुगलिया प्रभाव से मिली-जुली आकृति राजदरबारों,ठिकानों तथा वैष्णवपीठों में19वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक चलती रही।

मेवाड़ चित्रकला शैली(mewar style of painting) से सम्बंदित जानकारी आपको मिल गई होगी

मेवाड़ चित्रकला शैली (mewar style of painting)

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