मारवाड़ चित्र शैली (marwar style of painting)
मारवाड़ चित्र शैली(marwar style of painting)-यह पूर्व में जयपुर, किशनगढ़ और अजमेर, दक्षिण-पूर्व में उदयपुर (मेवाड़), दक्षिण में सिरोही और पालनपुर, दक्षिण-पश्चिम में कच्छ तथा कठियावाड, पश्चिम में थार का रेगिस्तान और सिंध, उत्तर-पश्चिम में जैसलमेर, उत्तर में बीकानेर तथा उत्तर-पूर्व में शेखावाटी से घिरा था।
मारवाड़ के भौगोलिक पर्यावरण पर प्रकाश डालने वाले प्राचीन साधन उपलब्ध नहींहैं, परन्तु परवर्ती साहित्य में इसका उल्लेख है। साक्ष्यों से प्रमाणित होता है कि मारवाड किसी समय समुद्राच्छादित प्रदेश थामरुप्रदेश में उपलब्ध नमक की झीलों व फलों, शंख,सीपी आदि
के उपलब्ध रूपों के आधार पर यहाँ टेथिस सागर के अवशेष होने का अनुमान किया जाता है। ‘रामायण’ में भी उल्लेख है कि इस प्रदेश में पहले समुद्र था, जो राम के आग्नेयास्त्र से शुष्क हो गया। रामायण में यह भी कहा गया है कि इस प्रदेश में ‘आभीर जाति’ निवास करती थी।
मारवाड ‘मरुस्थल’, ‘मरुभूमि’, ‘मरुप्रदेश’ आदि नामों से जाना में जो बालकामय है, उसे ‘मारवाड़’ कहा जाता है। राठौड़ वंश के राजपूतो के अधिकार में राजस्थान का जितना राज्य है, आजकल उतनी भूमि को मारवाड कहा जाता है
कि आरम्भ में ही यह प्रदेश शुष्क नहीं रहा, वरन् धीरे-धीरे यहाँ रेगिस्तान -हआ। रेगिस्तान के विस्तार से यहाँ की नदियाँ लुप्त हो गयीं।मरुभूमि में जीवनयापन के साधनों की दुष्प्रियता ने स्थानीय निवासियों कोपरिश्रमी एवं साहसी बनाया।
कठोर जीवन के अभ्यास ने ही इस भूमि के निवासियों काएवं योद्धा बना दिया। प्रकृतिगत प्रभाव ने परवती इतिहास को भी अपने अनुकूल बना दिया
16वीं शताब्दी में ‘भक्तिकाल’ की प्रसिद्ध कवयित्री ‘मीराबाई’ का मारवाड़ में जन्म हआ था। वे मालेदव की समकालीन थीं और वे अपनी सुन्दर भक्ति-रचना के कारण आज भी प्रख्यात हैं।
राजपूताने में जोधपुर राज्य अपना अलग-अलग वैशिष्ट्य रखता था। क्षेत्र विस्तार प्राचीनता की दृष्टि से राजपूताना के राज्यों में यह सबसे बड़ा तथा महत्त्वपूर्ण राज्य था सिसोदिया, चौहानों एवं भाटियों के बाद रणबांका राठौड़ों की भी गणना इसके अन्तर्गत होती।है।
प्रारम्भ से ही जोधपुर नगर ‘राठौड़ों की राजधानी’ रहने के कारण कला एवं संस्कृति का केन्द्र भी रहा है। जोधपुर राज्य तथा यहाँ के विभिन्न ठिकानों में विकसित होने वाली चित्रकला ‘मारवाड़’ या ‘जोधपुर शैली’ के नाम से जानी जाती है।
मारवाड़ क्षेत्र की चित्रकला का वैभव मूलत: जोधपुर की दरबार शैली के रूप में देखा जा सकता है, किन्तु इसके अतिरिक्त जैसलमेर नागौर, घाणेराव एवं अजमेर के कुछ भागों में भी इसका व्यापक प्रभाव परिलक्षित होता है।
मारवाड़ मारवाड़ चित्र शैली के प्रारम्भिक चित्र : मेवाड़ की भाँति ही मरु प्रदेश स्थित मारवाड़ में भी चित्रकला में अजन्ता शैली की परम्परा का निर्वाह किया है। यह विकास एवं परिवर्तन मेवाड़ तथा मारवाड़ में एक ही समय में हुआ है।
” जोधपुर चित्र शैली का पूर्व रूप मंडोर के पाषाण अर्द्ध चित्रों में दृष्टिगत होता है। इस चित्र परम्परा की प्राचीनता के सन्दर्भ में ‘लामा तारानाथ’ के उल्लेख भी महत्त्वपूर्ण हैं। तारानाथ ने 7वीं शताब्दी में मरुप्रदेश में ‘शृंगधर’ नामक चितेरे का उल्लेख किया है,
जिसने पश्चिमी भारत में यक्ष शैली’ को जन्म दिया। यह मारु देश के ‘राजा शील’ के राज्याश्रय में था। इससे यह सिद्ध होता. है कि मारवाड़ में चित्रकला अत्यन्त प्राचीनकाल से प्रचलित थी।
“लामा तारानाथ’ ने लिखा है कि इसके द्वारा स्थापित शैली के शास्त्रीय आधार अजन्ता। से भिन्न थे तथा अंग-प्रत्यंगों के लावण्यपूर्ण मोड़ तथा आँख, नाक, कान आदि नुकीले रूपों । का विशेष रूप से नवीनीकरण हुआ।
इसके प्रारम्भिक चित्रावशेष हमें प्रतिहारकालीन, ‘औद्य । नियुक्ति वृत्ति’ 1060 ई. में मिलते हैं। इसी कारण आगे अपभ्रंश शैली के चित्रों का विकास। भी मारवाड़ में देखा जा सकता है, जिनमें ‘ज्ञातसूत्र’ 1130 ई. ‘पंचाशिखाप्रकरणकृति’, पाला।
1150 ई., ‘दव्याश्रय महाकाव्य’, जालौर 1255 ई.. ‘पाण्डव चरित्र’ 1418 ई., ‘कल्पसूत्र । भीनमाल, 1506 ई., ‘कल्पसूत्र’, नागौर 1551 ई. आदि प्रमुख रहे हैं।
इसके पश्चात् जिन प्रारम्भिक चित्रों से मारवाड की स्पष्ट छवि उजागर हुई, उनमें भागवत’ 1610 ई., ‘पाली रागमाला’ 1623 ई., ‘ढोलामारू’ 1630 ई., ‘उषदेशमालावृत्ति’ ई. एवं ‘रसिक प्रिया’, बिलाड़ा 1653 ई. प्रमुख रहे।
इनमें मूलतः स्थानीय लोक- का प्रभाव स्पष्ट नजर आता है। चित्रों में निम्न विशेषताएँ होती हैं-रंग योजना अपभ्रंशशैली से भिन्न है। संयोजन में भी विविधता दिखलाई देती हैं। ये चित्र मारवाड़ में मुख्यतः पाली व उसके आस-पास के क्षेत्रों की स्थानीय
शैली का प्रतिनिधित्व करते हैं। जोधपुर शैली में लगभग सन् 1000 से 1500 ई. तक की चित्रित अनेक जैन पोथियाँ प्राप्त होती हैं। कल्पसूत्र तथा अन्य ग्रन्थों का चित्रण पोथियाँ रहा है।
कला संरक्षण : मारवाड़ शैली के पूर्ण विकास का काल 16वीं से 17वीं शताब्दी रहा है। मारवाड़ में कला एवं संस्कृति को नवीन परिवेश देने का श्रेय ‘मालदेव’ (1532-1568 ई.) को है। मालदेव से पूर्व मारवाड़ की चित्रशैली पर मेवाड़ का पूर्ण प्रभाव था।
इस काल की प्रतिनिधि चित्रशैली के उदाहरण हमें ‘चौखे का महल’ तथा ‘चित्रित उत्तराध्ययन सूत्र’ से प्राप्त होते हैं, जो बड़ौदा म्यूज़ियम, बड़ौदा में सुरक्षित हैं।
. मालदेव के पश्चात् ‘राजा सूरसिंह’ (1568-1618 ई.) के समय के अनेक चित्र उपलब्ध हैं। सूरसिंह कला प्रेमी शासक था। इसके राज्यकाल के कलापूर्ण सचित्र ग्रन्थों में ‘ढोलामारू’, ‘रसिक प्रिया’ तथा ‘भागवत’ का नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।
इन चित्रों में भड़कीले रंग और वस्त्राभूषणों में अभिजात्य एवं विलासिता के दर्शन होते हैं।
17वीं शताब्दी में शासकों की कलाप्रियता एवं विद्वता के कारण जोधपुर शैली का विकास एक विशिष्ट आयाम प्राप्त करता है। 17वीं शताब्दी के प्रारम्भ में महाराजा गजसिंह, महाराजा जसवंतसिंह से प्रारम्भ हुई साहित्य, संगीत एवं चित्रकला की त्रिवेणी
19वीं शताब्दी में महाराजा तख्तसिंह के समय तक निरन्तर प्रवाहित होती रही। राजा सूरसिंह के पश्चात् महाराजा ‘गजसिंह’ (1618-1632 ई.) के राज्यकाल में जोधपुर शैली विकास की ओरउन्मुख होती है। महाराजा गजसिंह के सहृदयी,
साहित्यिक एवं प्रगतिशील स्वभाव के कारण वे अनेक कवियों के आश्रयदाता थे। इनके समय में चित्रित ‘ढोलामारू’ तथा ‘भागवत’ के चित्र इस तथ्य को इंगित करते हैं।
हेम कवि ने डिंगल भाषा के ग्रन्थ ‘गुणभाषा’ चित्र की रचना की। केशवदास गाडण भी डिंगल भाषा का कवि था। इसने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘गुणरूपक’ की रचना सन् 1624 ई. में की, जिसमें गजसिंह के राज्य वैभव, तीर्थयात्रा और युद्धों का वर्णन है।
महाराजा जसवंतसिंह (1638-1678 ई.) कला एवं साहित्य के संरक्षक थे। जसवन्तसिंह स्वयं एक कवि थे। उन्होंने कई रचनाएँ रची। एक नई परम्परा स्थापित की, जो बाद तक प्रचलित रही। मारवाड़ में प्रचुर मात्रा में ‘धार्मिक ग्रन्थ’ एवं ‘प्रेमाख्यान’ लिखे गये।
ग्रन्थों को चित्रित भी किया गया, जो बड़ी संख्या में मिलते हैं। सभी राजाओं ने अपने धार्मिक विश्वासों के आधार पर धर्मग्रन्थ लिखवाये। ‘प्रहलाद चरित्र’, ‘भागवत’, ‘रामायण’, ‘कृष्ण लीला’ लिखीइसके समय में संगीत एवं कृष्ण भक्ति का अपूर्व विकास हुआ। कष्ण,
के कारण कृष्ण चरित्र को आधार बनाकर अनेक चित्रों का निर्माण हाएक स्वतंत्र चित्रण परम्परा उभर आई।
मारवाड़ शैली का स्वतंत्र रूप से उदय ‘महाराजा अजीतसिंह’ (1707-24) राज्य से होता है। इसके पश्चात् यह परम्परा अविच्छिन्न रूप से कायम रही। अजीतसिंह’ जी के शासन काल के चित्र सम्भवतः मारवाड़ शैली के सबसे अधिक सुन्दर चित्र हैं।
इनके विषय शृंगार रस के प्रसिद्ध काव्य ‘रसिक प्रिया’, ‘गीत-गोविन्द’ । हैं, जिनमें सामन्ती संस्कृति का सजीव चित्रण प्रस्तुत हुआ है।
राज्य संग्रहालय के संकलन में कुछ चित्र महाराजा अजीतसिंह के हैं। एक में राजा अजीतसिंह आसन पर बैठे फूल सूंघ रहे हैं। यह एलबम का बीसवाँ पष्ठ ।जबकि उन्नीसवें पृष्ठ पर उनकी प्रशंसा में कवित्त लिखा है। दूसरे चित्र में महाराजा
अजीतसिंह को घोड़े पर सवार दिखाया है, जो उनके यौवन काल का है। चित्र के पीछे नाम लिखा है।
‘महाराजा अभयसिंह’ (1744-49 ई.) महाराजा अजीतसिंह के ज्येष्ठ पुत्र थे।। उन्होंने अपने शासन काल में कला की परम्परा को अपने पूर्वजों की तरह समान रूप से प्रोत्साहित किया। महाराजा अभयसिंह संगीत, नृत्य, चित्रकला तथा साहित्य के पोषक थे।
इन्होंने ‘राधा-कृष्ण’ तथा ‘ढोलामारू’ विषयक चित्रों का निर्माण कराया। आपके राज्यकाल में अन्य मारवाड़ क्षेत्रीय ठिकानों में भी चित्रण को प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। ठिकानों के आधार पर कुछ परिवर्तन इन स्थानीय उपशैलियों में भी दिखाई देने लगी
घाणेराव ‘बख्तसिंह’ (1724-52 ई.) के समय क्रमशः ‘जोधपुर’ व ‘नागौर’ में अनेक सुन्दर चित्रों का निर्माण हुआ। राज्य संग्रहालय में ‘बख्तसिंह का भी शबीह’ है, चौड़े माथे पर तिलक, मूंछे लम्बी व कलमें जोधपुर शैली की हैं।
कमर में ढाल व तलवार की म्यान लगी है। एक हाथ में तलवार एवं एक हाथ में आभषण है। राजाआभषणों से अलंकृत है। हाथ में कड़े, बाजूबन्द, हार, कान में बन्दे, पगडी पर पेटीएवं अँगुलियों में अंगूठियाँ हैं।
.’रामसिंह जी’ (1749-51 ई.) ने अपने अल्पशासन काल में चित्रण को अपनी रुचि के अनुसार विशेष प्रोत्साहन दिया। राजसी वैभव एवं महाराजाओं के गौरव ने उन्हें चित्रों में विशेष महत्त्व दिया। इसी दौरान लम्बी तुर्रेदार पगड़ियों का पहनावाबढ़ा, जिससे चित्रों में विशेष आकर्षण बढ़ा।
विजयसिंह’ (1753-1793 ई.) के समय में ‘भक्ति और श्रंगार रस के चित्रों का निर्माण हुआ। इस समय चित्रों में मुगल प्रभाव समाप्त हो जाता हैरंग, रेखा, लय, सब राजस्थानी शैली का स्वरूप व्यक्त करते हैं। चिनीभीमसिंह के समय तक क्रमशः चलता रहा।
विजयसिंह के लम्बे काल तक मूलतः वैष्णव संप्रदाय के प्रति आस्थावान रहने सेएवं वैष्णव धर्म से संबंधित चित्र बहुतायत से मिलते हैं। पूर्ववर्ती मुगल संयोजनों। पर आधारित होते हुये भी चित्रकार उनमें स्थानीय नवीनता का समावेश पहले से अधिक करने लगते हैं।
18वीं शताब्दी के मध्य जोधपुर के महाराजा विजयसिंह व बीकानेर के महाराजा की मित्रता से मारवाड़ व बीकानेरी कलाकारों के संगम से चित्रों में विशेष नवनीकरण हुआ।
चित्रकारों ने मथेंन (जैन) घरानों में ग्रन्थ चित्रित किये, जो लोक-कथाओं पर आधारित एवं लोक-शैली में निर्मित थे।’महाराजा भीमसिंह’ (1793-1803ई.) के राज्यकाल में मुख्यतः व्यक्ति चित्र, दरबार एवं जुलूस से संबंधित चित्र अधिकबने।
इस दौरान मुखाकृति चित्रण करने में परिवर्तन दिखाई देता है। लम्बी नासिका, बडी-बड़ी आँखें, आकृतियाँ भारी-भरकम, |
जिस पर गोल मांसल युक्त चेहरा, दोहरी ठुड्डी बाहर की तरफ निकली हुई, जैसी विशेषताएँ दिखाई देती हैं। 1800 ई. में निर्मित चित्र ‘दशहरा दरबार’ जोधपुर शैली का सुन्दर उदाहरण है।
‘महाराजा मानसिंह’ (1803-43 ई.) के शासनकाल में मारवाड़ शैली का अन्तिम महत्त्वपूर्ण चरण प्रारम्भ होता है, जो कालान्तर में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँचा। महाराजा मानसिंह स्वयं महान् कला प्रेमी थे। इन्होंने ही
‘कर्नल टॉड’ को ‘मारवाड का इतिहास’ लिखने में बड़ी मदद की थी।
वे स्वयं विद्याव्यसनी एवं उच्चकोटि के कवि थे और कलाकारोंएवं विद्वानों का स्वयं आदर करते थे। मानसिंह ने ही ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी’ के साथ संधि की।
नाथ-सम्प्रदाय में आस्था होने के कारण मानसिंह के काल में नाथ सम्प्रदाय पर बड़ी संख्या में पुस्तकें लिखी गयीं तथा नाथों से संबंधित चित्रों का निर्माण हुआ।
सेवक ‘दौलत राम’ ने ‘जलन्धर-नाथजी के गुण’ और ‘परिचय प्रकाश’, ‘अभयचन्द्र’ ने ‘नाथ चन्द्रिका’ एवं ‘ताराकनाथ’ ने ‘पोथियों की महिमा’ की रचना की।
‘शिवशक्ति’ से संबंधित ग्रन्थों की भी रचना हुई। इनके निर्देशन में अनेक कलाकारों ने इन्हीं की मौलिक कार्य शैली का चित्रण परम्परा में निर्वाह किया और अनेक कार्यशालाएँ स्थापित की। इस समय के प्रमुख चित्रकारों’ में ‘अमरदास भाटी’, ‘दाना भाटी’, ‘शंकरदास’, ‘माधोदास’, ‘रामसिंह नाटी’ इत्यादि प्रमुख हैं।
इनके समय में चित्रित ‘रसराज’ के 63 चित्र नाथ-सम्प्रदाय के किसी मठ से ही प्राप्त हए हैं। मानसिंह के गुरुभ्यास जी देवनाथ थे, जिनके मठों में चित्रकला और सुरक्षित हुई। इस सम्प्रदाय से सम्बद्ध रचनाओं के अतिरिक्त
‘रांगा’बिहारी सतसई की टीका’, ‘रागसार’, ‘कृष्ण विलास’, ‘राय विलास’, ‘संयोग- का दोहा’ इत्यादि की रचना की। इनके अतिरिक्त नायक-नायिका लक्षणों पर भी रचनाएँ बनीं।
‘ढोलामारू’, ‘शिवपुराण’, ‘नाथचरित्र’, ‘दुर्गाचरित्र’, ‘पंचतंत्र’, ‘रागमाला’ और’कामसूत्र’ पर विस्तृत रूप में चित्रण हुआ है। इसके साथ ही मानसिंह के अन्तःपुर के अनेक चित्र बने, जिनमें अन्त:पुर की महिलाओं के साथ स्नान करते, तैरते एवं झलते हुए मानसिंह को चित्रित किया है।
इनके समय में मारवाड़ चित्र परम्परा में एक नवीन परिपक्वता तथा विषय में विविधता आई।” इस समय के चित्र इस शैली के चरमोत्कष्ट स्वरूप का उद्घाटन है। उसके बाद ‘तख्तसिंह’, ‘उम्मेदसिंह’ और अन्त में ‘महाराजा हनुवंतसिंह’ के समय सन् 1949 ई. में मारवाड़ राजस्थान प्रदेश का अंग बना।
महाराजा ‘तख्तसिंह’ (1843-1873 ई.) के समय में चित्रण की गतिविधियों में एकाएक तेजी आई, लेकिन शीघ्र ही इन चित्रों में ह्रास के लक्षण दृष्टिगत होने लगे। इनके समय में भी ‘कृष्ण चरित्र’ का ही चित्रण हुआ।
नारी चित्रण का भी उत्कृष्ट रूप प्राप्त होता है। होली के चित्रों में महिलाओं के साथ, शृंगारपूर्ण चित्रों में नायक के स्थान पर स्वयं महाराजा तख्तसिंह को चित्रों में बनाया जाने लगा। मारवाड़ शैली के श्रृंगार विषयक अनेकचित्र चित्रित हुये हैं,
जो विभिन्न संग्रहालयों में सुरक्षित हैं।
संग्रहालय के चित्रों में चित्रकार ‘शिवदास’ द्वारा बनाया गया तिथियुक्त चित्र है।सन् 1816 ई. में बने इस चित्र में ‘स्त्री को हुक्का पीते’ हुए दिखाया गया है। आभूषणों से युक्त कमर में जमदाढ़ लगाये मोढ़े पर महिला बैठी है।
इसकी आँखों का अंकन किशनगढ़ शैली जैसा है। मारवाड़ शैली के प्रमुख विषयों में लोक-कथाओं का अंकनभी किशनगढ़ शैली जैसा है।
‘महाराजा मानसिंह’ एवं ‘तख्तसिंह’ के काल में अन्त:पुर के विलास के श्रंगारपूर्ण चित्रण का बाहुल्य रहा है। इन चित्रों में सर्वत्र महाराजा तथा महारानी ने ही। नायक-नायिका का स्थान लिया है। अन्त:पुर में संगीत का आनन्द लेते, महिलाओं के साथ
फाग खेलते तथा जल क्रीड़ा करते हुए, महारानी एवं अन्य महिला परिचारिकाओ। के साथ झूला झूलते हुए तथा बारहमासों में
महाराजा-महारानी की संयोगकालिक क्रीड़ाए, ऋतुओं का आनन्द, व्यवस्थाओं का चित्रण, एकान्त में वर्षा के उपरान्त भ्रमण करते हुए, महाराजा चौपड़ खेलते हुए, पोलो खेलते हुए, महारानी के हाथों मद्यपान करते हुए चित्रण किया गया है।
चित्रकार ने अन्त:पर के हर कोने में झाँक कर भंगार के विभिन्न रूपाका सजीव उद्घाटन किया है।
मारवाड़ शैली की विशेषताएं ,उसका वर्णन अतुलनीय है आपके ब्लॉग पोस्ट में ।धन्यवाद