राजस्थान के दुर्ग/किले

Rajasthan Ke Durg 1
Rajasthan Ke Durg

राजस्थान के दुर्ग/किले rajasthan ke durg

राजस्थान किलों (rajasthan ke durg) का प्रदेश है यहाँ प्रत्येक नगर और कस्बे में किलों व गढ़ों के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं। हर किले की अपनी कहानी है तथा उसके साथ कोई न कोई ऐतिहासिक प्रसंग जुड़ा हुआ है। शुक्रनीति में राज्य के सात अंगों में किले को भी एक माना गया है।

शुक्रनीतिकार ने किले के नौ भेद बताए हैं — खाई, काँटों तथा पत्थरों से जिसके मार्ग दुर्गम बने हों, उसे ‘ एरण दुर्ग’ कहते हैं। ‘ पारिख दुर्ग ‘ वह है जिसके चारों ओर खाई हो। चारों ओर ईंट, पत्थर तथा मिट्टी से बनी बड़ी बड़ी दीवारों के परकोटे वाला’ पारिध दुर्ग ‘ होता है।

‘ वन दुर्ग ‘ के चारों ओर काँटेदार वृक्षों का समूह होता है।’ धन्व दुर्ग ‘ के चारों ओर रेतीला मरुस्थल होता है। जिस दुर्ग के चारों ओर बहुत दूर तक जलराशि हो उसे’ जल दुर्ग ‘ तथा एकांत में किसी पहाड़ी पर बना किला’ गिरि दुर्ग ‘ की श्रेणी में आता है।

व्यूह रचना में चतुर वीरों से व्याप्त होने से जो अभेद्य हो उसे’ सैन्य दुर्ग ‘ तथा जिसमें शूर एवं सदा अनुकूल रहने वाले बांधव लोग रहते हों उसे’ सहाय दुर्ग ‘ कहते हैं। शुक्रनीतिकार ने सैन्य दुर्ग को सर्वश्रेष्ठ बताया है।

1. कुम्भलगढ़ का किला (Kumbhalgarh Fort)

Kumbhalgarh Fort

राजस्थान के दुर्ग/किले rajasthan ke durg में कुम्भलगढ़ का दुर्भेद्य किला राजसमंद जिले में सादड़ी गाँव के पास अरावली पर्वतमाला के एक उत्तुंग शिखर पर अवस्थित है।

मौर्य शासक सम्प्रति द्वारा निर्मित प्राचीन दुर्ग(rajasthan ke durg) के अवशेषों पर 1448 ई. में महाराणा कुम्भा ने इस दुर्ग की नींव रखी, जो प्रसिद्ध वास्तुशिल्पी मंडन की देखरेख में 1458 ई. में बनकर तैयार हुआ। ‘ वीर विनोद’ के अनुसार इसकी चोटी समुद्रतल से 3568 फीट और नीचे की नाल से 700 फीट ऊँची है।

बीहड़ वन से आवृत्त कुम्भलगढ़ दुर्ग संकटकाल में मेवाड़ राजपरिवार का आश्रय स्थल रहा है। कुम्भलगढ़ प्रशस्ति में दुर्ग (rajasthan ke durg) की समीपवर्ती पर्वत श्रृंखलाओं के श्वेत, नील, हेमकूट, निषाद, हिमवत, गन्धमादन इत्यादि नाम मिलते हैं। वीर विनोद में कहा गया है कि चित्तौड़ के बाद कुम्भलगढ़ दूसरे नंबर पर आता है।

अबुल फजल किले की ऊँचाई के बारे में लिखता है कि ” यह इतनी बुलंदी पर बना हुआ है कि नीचे से ऊपर की ओर देखने पर सिर से पगड़ी गिर जाती है।” कुम्भलगढ़ मेवाड़ की संकटकालीन राजधानी रहा है।

महाराणा प्रताप का जन्म, उदयसिंह का राज्याभिषेक और महाराणा कुम्भा की हत्या (मामादेव कुण्ड के पास) का साक्षी यह किला मालवा और गुजरात के शासकों की आँखों की किरकिरी रहा। लेकिन काफी प्रयासों के बावजूद भी वे उस पर अधिकार करने में असफल रहे।

1578 ई. में मुगल सेनानायक शाहबाज खाँ ने इस पर अल्पकाल के लिए अधिकार कर लिया था, किंतु कुछ ही समय बाद महाराणा प्रताप ने इसे पुनः अधिकार में ले लिया। तब से स्वतंत्रताप्राप्ति तक यह किला मेवाड़ के शासकों के पास ही रहा। किले के चारों ओर सुदृढ़ प्राचीरे हैं,

जो पहाड़ियों की ऊँचाई से मिला दी गई हैं। प्राचीरों की चौड़ाई सात मीटर है। इस किले में प्रवेश द्वार के अतिरिक्त कहीं से घुसना संभव नहीं है। प्राचीर की दीवारें चिकनी और सपाट हैं और जगह-जगह पर बने बुर्ज इसे सुदृढ़ता प्रदान करते हैं।

कुम्भलगढ़ के भीतर ऊँचाई पर एक लघु दुर्ग है, जिसे ‘ कटारगढ़’ कहा जाता है। यह गढ़ सात विशाल दरवाजों और सुदृढ़ प्राचीर से सुरक्षित है। कटारगढ़ में कुम्भा महल, सबसे ऊपर एवं सादगीपूर्ण है। किले भीतर कुम्भस्वामी का मंदिर, बादल महल, देवी का प्राचीन मंदिर, झाली रानी का महल आदि प्रसिद्ध इमारतें हैं।

हल्दीघाटी के युद्ध से पूर्व महाराणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ में ही रहकर युद्ध संबंधी तैयारियां की थीं तथा युद्ध के बाद कुम्भलगढ़ को ही अपना निवास स्थान बनाया था। कुम्भलगढ़ के दुर्भेद्य स्वरूप को निम्न दोहे में प्रकट किया गया है

2. चित्तौड़ का किला (Chittor Fort)

Chittor Fort

राजस्थान के दुर्ग/किले rajasthan ke durg में चित्तौड़ का किला वीरता, त्याग, बलिदान, स्वतंत्रता और स्वाभिमान का प्रतीक चित्तौड़ का किला स्थापत्य की दृष्टि से भी विशिष्ट है।

किले के संबंध में प्रचलित लोकोक्ति “ गढ़ तो चित्तौड़ बाकी सब गलैया”, किले की सुदृढ़ता और स्थापत्य श्रेष्ठता की ओर इंगित करती है। राजस्थान का गौरव और किलों का सिरमौर कहलाने वाला चित्तौड़ का किला

अजमेर-खण्डवा रेलमार्ग पर चित्तौड़गढ़ जंक्शन से 3 किलोमीटर दूर गंभीरी व बेड़च नदियों के संगम स्थल के निकट अरावली पर्वतमाला के एक विशाल पर्वत शिखर पर बना है। समुद्रतल से इसकी ऊँचाई लगभग 1850 फीट है। क्षेत्रफल की दृष्टि से इसकी लंबाई लगभग 8 किलोमीटर व चौड़ाई 2 किलोमीटर है।

दिल्ली से मालवा और गुजरात जाने वाले मार्ग पर अवस्थित होने के कारण मध्यकाल में इस किले का सामरिक महत्व था। चित्तौड़ के किले के निर्माता के बारे में प्रामाणिक जानकारी का अभाव है।

‘ वीर विनोद’ ग्रंथ के अनुसार मौर्य राजा चित्रांग (चित्रांगद) ने यह किला बनवाकर अपने नाम पर इसका नाम चित्रकोट रखा था, उसी का अपभ्रंश ‘ चित्तौड़’ है। मौर्य वंश के अंतिम शासक मानमोरी से आठवीं शताब्दी में गुहिल वंश के संस्थापक बप्पा रावल ने इस पर अधिकार कर लिया।

दसवीं शताब्दी के अंत में मालवा के परमार शासक मुंज ने चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया, तत्पश्चात् ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में यह गुजरात के चालुक्य शासक जयसिंह सिद्धराज के नियंत्रण में चला गया। बारहवीं शताब्दी में चित्तौड़ पर पुनः गुहिलों का आधिपत्य स्थापित हो गया।

1303 ई. में इसे अलाउद्दीन खलजी ने हस्तगत कर लिया। 1326 ई. में सीसोदे के राणा हम्मीर ने चित्तौड़ पर पुनः गुहिल-सिसोदिया वंश को प्रतिष्ठापित किया। 1568 से 1615 ई. तक यह किला मुगलों के अधिकार में रहा।

1615 ई. की मेवाड़ मुगल संधि के परिणामस्वरूप यह पुन: गुहिल वंश को प्राप्त हुआ, तब से 1947 ई. तक इस पर मेवाड़ के गुहिल-सिसोदिया शासकों का ही अधिकार रहा।

चित्तौड़ के किले के साथ 1303 ई. में पद्मिनी के जौहर व गोरा-बादल की अप्रतिम वीरता एवं 1535 ई. में राणा सांगा की पत्नी कर्णावती का जौहर तथा 1568 ई. में जयमल व फत्ता की पलियों के जौहर और इन वीरों के साहसिक बलिदान की गाथाएँ जुड़ी हुई हैं। ये चित्तौड़ के तीन साके भी कहलाते हैं।

3. गागरोन का किला (Gagrons Fort)

Gagrons Fort

राजस्थान के दुर्ग/किले rajasthan ke durg में गागरोन का किला दक्षिण-पूर्वी राजस्थान में झालावाड़ से 4 किलोमीटर दूर अरावली पर्वतमाला की एक सुदृढ़ चट्टान पर कालीसिंध और आहू नदियों के संगम स्थल पर स्थित है। तीन तरफ नदियों से घिरा यह किला ‘ जल दुर्ग’ (rajasthan ke durg) की श्रेणी में आता है।

घने और दुर्गम जंगलों के बीच स्थित यह किला चारों ओर एक खाई से  घिरा हुआ है । गागरोन पर पहले डोड (परमार ) राजपूतों का अधिकार था । जिन्होंने इस किले का निर्माण करवाया उनके नाम पर यह डोडगढ़ या धुल गढ़ कहलाया

चौहान कुल कल्पद्रुम’ के अनुसार देवनसिंह खींची ने बारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में बीजलदेव डोड को मारकर धूलरगढ़ पर अधिकार कर लिया और उसका नाम गागरोन रखा। मालवा, गुजरात, मेवाड़ और हाड़ौती का सीमावर्ती किला होने से गागरोन का सामरिक महत्व था।

1300 ई. में खींची शासक जैतसी ने अलाउद्दीन खलजी के गागरोन पर आक्रमण को विफल कर दिया 1423 ई. में मांडू के सुल्तान होशंगाबाद ने गागरोन पर आक्रमण किया  तब यहाँ का शासक अचलदास खिंची वीरगति को प्राप्त हुआ

और महिलाहो ने जौहर किया यह गागरोन का प्रथम साका कहलाता है 1437 ई. में इस किले पर खिंची शासक पाल्हन्सी ने पुनः अधिकार कर लिया 1444 ई. में मालवा के सुल्तान महमूद खिलज़ी प्रथम ने इस किले को हस्तगत कर लिया तब किले की महिलाओ ने जौहर किया

ये गागरोन का दूसरा साका था महमूद खिलज़ी ने इस किले में एक और कोर्ट का निर्माण करवाया उसका नाम मुस्तफाबाद रखा

 

 

4. अचलगढ़ का किला (Achalgarh Fort)

 

Achalgarh Fort

राजस्थान के दुर्ग/किले rajasthan ke durg में अचलगढ़ का किला आबू से 13 किलोमीटर दूर अरावली पर्वतमाला की चोटी पर अवस्थित है। आबू का पुराना किला परमार शासकों द्वारा बनवाया गया था। इसी प्राचीन किले के भग्नावशेषों पर 1452 ई. में महाराणा कुम्भा (1433-68 ई.) ने अचलगढ़ का निर्माण करवाया।

इसके निर्माण का उद्देश्य मेवाड़ को गुजरात के संभावित आक्रमणों से सुरक्षित करना था। गुजरात के सुल्तान कुतुबशाह और मेहमूद बेगड़ा (1458-1509 ई.) का भी कुछ समय के लिए अचलगढ़ पर अधिकार रहा, जिन्होंने किले की प्राचीन देव-प्रतिमाओं को नष्ट किया।

किले की प्राचीर में हनुमानपोल और गणेशपोल दो बाह्य प्रवेश द्वार हैं, जिन पर हनुमान और गणेश की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठापित हैं। इनके पास कफूर सागर जलाशय है किले के अन्य प्रवेश द्वारा चम्पापोल और भैरवपोल हैं, जिसमें प्रवेश करने पर किले का भीतरी दृश्य दिखाई देता है।

किले के अंदर कुम्भा के राजप्रासाद, उसकी ओखा रानी का महल, अनाज के कोठे, सैनिकों के आवास गृह, पानी के विशाल टाँके, सावन भादो झील, परमारों द्वारा निर्मित खतरे की सूचना देने वाली बुर्ज आदि के भग्नावशेष विद्यमान हैं।

किले में ऋषभदेव और पार्श्वनाथ के दो जैन मंदिर एवं कुम्भा द्वारा निर्मित कुंभस्वामी का मंदिर भी दर्शनीय हैं।

 

5.जयगढ़ का किला, जयपुर (Jaigarh Fort)

Jaigarh Fort

राजस्थान के दुर्ग/किले rajasthan ke durg में जयगढ़ का किला आमेर के राजप्रसाद के दक्षिणवर्ती पर्वतशिकर पर निर्मित जयगढ़ का किले का निर्माण   मानसिंह प्रथम ने (1589-1614 ई.) के मध्य करवाया  था।

मगर इतिहासकार जगदीश सिंह और डॉ. गोपीनाथ शर्मा के अनुसार इस किले का निर्माण मिर्जा राजा जयसिंह (1621-1667 ई.) ने करवाया तथा उन्हीं के नाम पर यह जयगढ़ कहलाया

श्रीमती इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री के काल में एकमात्र किला काल में हुई व्यापक  खुदाई की घटना ने जयगढ़ को देश-विदेश में चर्चित बना दिया। जयगढ़ उत्कृष्ट ‘ गिरि दुर्ग’ (rajasthan ke durg)  है।

सुदृढ़ और उन्नत प्राचीर, घुमावदार विशाल बुर्जे तथा पानी के विशाल टांके इसके स्थापत्य की प्रमुख विशेषता है। जयगढ़ के भवनों में जलेब चौक, दीवान-ए-आम (सुभट निवास), दीवान-ए-खास (खिलबत निवास), ललित मंदिर, विलास मंदिर, लक्ष्मी निवास, सूर्य मंदिर, आराम मंदिर, राणावतजी का चौक आदि मुख्य हैं।

किले में राम, हरिहर व काल भैरव के प्राचीन मंदिर भी बने हुए हैं। आराम मंदिर के सामने मुगल उद्यान शैली (चार-बाग शैली) पर निर्मित एक मंदिर हैं। जयगढ़ के भीतर एक लघु अन्तः दुर्ग (rajasthan ke durg) भी बना है जिसमें महाराजा सवाई जयसिंह ने अपने छोटे भाई विजयसिंह को कैद रखा था।

विजय सिंह के नाम पर यह  ‘ विजयगढ़ी’ कहलाया। विजयगढ़ी के पार्श्व में एक सात मंजिला प्रकाश स्तम्भ है जो ‘ दीया बुर्ज’ कहलाता है। जयगढ़ में तोपें ढालने का विशाल कारखाना था जो राजस्थान के अन्य किसी किले में नहीं मिलता है।

महाराजा सवाई जयसिंह द्वारा बनवाई गई एशिया की सबसे बड़ी तोप ‘ जयबाण’ यहीं पहियों पर रखी हुई है। जयगढ़ में मध्यकालीन शस्त्राशस्त्रों का विशाल संग्रहालय बना हुआ है।

6. जूनागढ़ का किला, बीकानेर (Junagadh Fort Bikaner)

Junagadh Fort Bikaner

राजस्थान के दुर्ग/किले rajasthan ke durg में ‘ धान्वन दुर्ग’ जूनागढ़ का निर्माण महाराजा रायसिंह (1574-1612 ई.) ने करवाया था। दयालदास की ख्यात के अनुसार महाराजा रायसिंह जब बुरहानपुर में थे, तब उसने अपने मंत्री कर्मचन्द को किला बनाने का आदेश दिया।

दयालदास की ख्यात के अनुसार नये गढ़ की नींव मौजूदा पुराने गढ़ के स्थान पर ही भरी थी, इसी कारण इसे जूनागढ़ कहा गया। जूनागढ़ की आकृति चतुर्भुजाकार है जो 1078 गज की परिधि में फैला हुआ है। किले की प्राचीर में 37 विशाल बुर्जे बनी हुई हैं जो लगभग 40 फीट ऊँची हैं।

किला चारों ओर एक गहरी-चौड़ी खाई से घिरा हुआ है। किले के भीतर जाने के लिए दो प्रमुख प्रवेश द्वार हैं। पूर्वी दरवाजा कर्णपोल तथा पश्चिमी दरवाजाचाँद पोल कहलाता है। किले में पाँच आंतरिक द्वार हैं जो दौलतपोल, फतहपोल, रतनपोल, सूरजपोल और ध्रुवपोल कहलाते हैं।

सूरजपोल पर रायसिंह प्रशस्ति उत्कीर्ण हैं। सूरजपोल के पार्श्व में गणेशजी का छोटा-सा मंदिर है। सूरजपोल के दोनों तरफ चित्तौड़ युद्ध (1568 ई.) के नायक जयमल और फत्ता की गजारूढ़ मूर्तियाँ स्थापित हैं।

बीकानेर के शासकों द्वारा मुगल अधीनता स्वीकार करने और उनसे राजनीतिक मित्रता होने के कारण जूनागढ़ को किसी बड़े आक्रमण का सामना नहीं करना पड़ा। 1733 ई. में नागौर के शासक सजातीय बख्तसिंह राठौड़ ने जूनागढ़ का घेरा डाला, मगर उसे सफलता नहीं मिली।

1740 ई. में जोधपुर महाराजा अभयसिंह का बीकानेर पर आक्रमण भी सफल नहीं रहा। जूनागढ़ में निर्मित भवनों में हिन्दू-मुस्लिम कला शैलियों का समन्वय मिलता है।

रायसिंह का चौबारा, फूलमहल, चन्द्रमहल, गज मंदिर, अनूप महल, रतन निवास, रंग महल, कर्ण महल, दलेल निवास, छत्र महल, लाल निवास, सरदार निवास, गंगा निवास, चीनी बुर्ज, सुनहरी बुर्ज, विक्रम विलास, सूरत निवास,

मोती महल, कुंवरपदा और जालीदार बारहदरियां अपने शिल्प एवं सौन्दर्य के कारण दर्शनीय हैं। अनूप महल में सोने की कलम से काम किया हुआ है। यहाँ शासकों का राजतिलक होता था। इसमें रखा कलात्मक हिण्डोला उत्कृष्ट है।

फूलमहल और गजमंदिर शीशे की बारीक कटाई व फूल-पत्तियों के सजीव चित्रांकन के लिए प्रसिद्ध हैं। गंगा निवास लाल रंग के पत्थरों के काम के लिए तथा छत्र निवास अपनी सुन्दर लकड़ी की छत व कृष्ण की रासलीला के सजीव चित्रण के लिए प्रसिद्ध हैं।

7. तारागढ़ का किला, अजमेर (Taragarh Fort, Ajmer)

Taragarh Fort Ajmer

राजस्थान के दुर्ग/किले rajasthan ke durg  में’ तारागढ़ का किला गढ़ बीठली’, अजयमेरू और तारागढ़ के नाम से विख्यात यह किला अरावली पर्वतमाला के उत्तुंग शिखर पर निर्मित है।

कर्नल टॉड के अनुसार अजमेर नगर के संस्थापक अजयराज (1105-1133 ई.) ने इस किले का निर्माण करवाया। डॉ. गोपीनाथ शर्मा का मानना है कि राणा सांगा के भाई कुँवर पृथ्वीराज ने इस किले के कुछ भागों का निर्माण करवाया और अपनी पत्नी तारा के नाम पर इसका नाम तारागढ़ रखा।

गढ़ बीठली के बारे में कहा जाता है कि बीठली ‘ उस पहाड़ी का नाम है जिस पर दुर्ग बना हुआ है।’ गढ़ बीठली ‘नाम के संबंध में एक अन्य मत यह भी है कि मुग़ल बादशाह शाहजहाँ के शासनकाल में विट्ठलदास गौड़ यहाँ का दुर्गाध्यक्ष था, (1644-1656 ई.) जिसने इस दुर्ग(rajasthan ke durg) का जीर्णोद्धार करवाया।

उसी के नाम पर इस किले का नाम’ गढ़ बीठली ‘ पड़ा। यह किला समुद्रतल से 2855 फीट ऊँची पहाड़ी पर बना हुआ है और 80 एकड़ की परिधि में फैला हुआ है पर्वत शिकरों के साथ मिली हुई ऊँची प्राचीर , विशालकाय बुर्जे तथा सघन वन इसे सुरक्षा प्रदान करते है |

हरविलास शारदा ने इसे भारत का प्राचीनतम गिरी दुर्ग माना है | राजपुताना के मध्य में स्थित होने के कारण इस दुर्ग (rajasthan ke durg) का विशेष सामरिक महत्व रहा है इसलिए महमूद गजनवी से लेकर अंग्रेजो के नियंत्रण में आने तक इसे अनेक आक्रमणों का सामना करना पढ़ा है

हरविलास शारदा के अनुसार राजस्थान के दुर्गो में सर्वाधिक आक्रमण  तारागढ़ का किले पर हुहे है | राव मालदेव ने तारागढ़ का किले का जीर्णोधार करवाया था मालदेव की पत्नी “ रूठी रानी “ ने तारागढ़ का किले को अपना निवास स्थान बनाया था |

गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बैंटिक ने 1832 ई. में संभावित उपद्रव की आशंक से इस किले की प्राचीर और अन्य भाग तुड़वाकर इस किले का सामरिक महत्त्व समाप्त कर दिया। तारागढ़ की प्राचीर में 14 विशाल बुर्जे-बूंघट,

गूगड़ी, फूटी, नक्कारची, शृंगार चवरी, आर-पार का अत्ता, जानू नायक, पीपली, इब्राहीम शहीद, दोराई, बांदरा, इमली, खिड़की और फतेह बुर्ज हैं। नाना साहब का झालरा, गोल झालरा, इब्राहीम का झालरा, बड़ा झालरा आदि किले के भीतर जलाशयों के नाम हैं।

तारागढ़ में मुस्लिम संत मीरां साहेब की दरगाह भी स्थित है। बिशप हैबर ने इस किले के बारे में लिखा है, ” यदि यूरोपीय तकनीक से इसका जीर्णोद्धार करवाया जाय तो यह दूसरा जिब्राल्टर बन सकता है।” इसे राजस्थान का जिब्राल्टर भी कहा जाता है।

8. भटनेर का किला, हनुमानगढ़ (Bhatner Fort, Hanumangarh)

Bhatner Fort Hanumangarh

राजस्थान के दुर्ग/किले rajasthan ke durg  में’ भटनेर का किला घग्घर नदी के मुहाने पर हनुमानगढ़ में अवस्थित भटनेर का किला मरुस्थल से घिरा होने के कारण ‘ धान्वन दुर्ग’ की श्रेणी में रखा जाता है। दिल्ली-मुल्तान मार्ग पर स्थित होने के कारण इसका सामरिक महत्त्व था।

जनश्रुति के अनुसार इस किले का निर्माण भाटी राजा भूपत ने तीसरी शताब्दी के अंतिम चरण में करवाया था। यह किला 52 बीघा भूमि में विस्तृत है। इसमें 52 विशाल बुर्जे हैं। किले का निर्माण पकी हुई ईंटों और चूने से हुआ है।

बीकानेर के महाराजा सूरतसिंह द्वारा 1805 ई. में मंगलवार के दिन इस किले पर अधिकार किये जाने के कारण भटनेर का नाम हनुमानगढ़ रखा तथा किले में हनुमानजी के एक मंदिर का निर्माण भी करवाया।

महमूद गजनवी ने 1001 ई. में भटनेर पर अधिकार किया था। बलबन के शासनकाल में शेरखाँ यहाँ का हाकिम था, जिसने यहीं से मंगोल आक्रमणकारियों का सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया। शेर खाँ की कब्र आज भी किले के भीतर विद्यमान है।

1398 ई. में तैमूर ने भटनेर पर आक्रमण कर लूटमार मचाई। 1527 ई. में पहली बार राव जैतसी ने किले पर राठौड़ आधिपत्य स्थापित किया। हुमायूँ के भाई कामरान के आक्रमण (1534 ई.) के समय राव ने दुर्ग की रक्षार्थ अप्रतिम वीरता दिखाई, जिससे कामरान को पीछे हटना पड़ा।

1549 ई. में भटनेर पर राठौड़ ठाकुरसी ने अधिकार कर लिया। 1570 ई. में अकबर ने भटनेर पर अधिकार कर लिया, लेकिन ठाकुरसी के पुत्र बाघा की सेवा से प्रसन्न होकर भटनेर उसको सौंप दिया।

तत्पश्चात् यह किला बीकानेर के शासकों के अधिकार में रहा। भटनेर को लेकर भाटियों और जोहियों के मध्य संघर्ष चला और किले के स्वामित्व में परिवर्तन होता रहा। अंततः 1805 ई. में यह बीकानेर के आधिपत्य में चला गया। भटनेर को ‘ उत्तरी सीमा का प्रहरी’  भी कहा जाता है।

9. मेहरानगढ़ का किला, जोधपुर (Mehrangarh Fort, Jodhpur)

Mehrangarh Fort Jodhpur

राजस्थान के दुर्ग/किले rajasthan ke durg  में मेहरानगढ़ के किले का निर्माता जोधपुर नगर का संस्थापक राव जोधा (1438-1489 ई.) था। राव जोधा ने 13 मई, 1459 को चिड़ियाट्क नामक पहाड़ी योगी चिड़ियानाथ के नाम पर, जिनका स्थान आज भी किले के पीछे विद्यमान हैं पर किले की नींव रखी।

ऐसी मान्यता है कि किले की नींव में राजिया नामक व्यक्ति को जिंदा दफन किया गया। मयूराकृति का होने के कारण जोधपुर के किले को ‘ मयूरध्वज गढ़’ भी कहा जाता है। राव जोधा ने इस किले के चारों ओर एक नगर बसाया (1459 ई.) जो उनके नाम पर जोधपुर कहलाया।

राजस्थान के पर्वतीय दुर्गों में सबसे प्रमुख, यह किला अपनी विशालता के कारण ‘ मेहरानगढ़’ कहलाया। मेहरानगढ़ किला भूमितल से लगभग 400 फीट ऊँचा है। किले के चारों ओर सुदृढ़ परकोटा है

जो लगभग 20 फीट से 120 फीट तक ऊँचा और 12 से 20 फीट तक चौड़ा है। किले की लम्बाई 500 और चौड़ाई 250 गज है। इसकी प्राचीर में विशाल बुर्जे बनी हुई हैं। मेहरानगढ़ के दो बाह्य प्रवेशद्वार हैं-

उत्तर-पूर्व में जयपोल तथा दक्षिण-पश्चिम में फतेहपोल। ध्रुवपोल, सूरजपोल, इमरतपोल, भैरोंपोल आदि अन्य प्रवेश द्वार हैं। 1544 ई. में इस किले पर शेरशाह सूरी ने अधिकार कर लिया था। लेकिन 1545 ई. में मालदेव ने पुनः इसे अपने आधिपत्य में ले लिया।

1564-1565 ई. में मुगल सूबेदार हसन कुली खाँ ने चन्द्रसेन का आधिपत्य समाप्त कर इस पर मुगल आधिपत्य की स्थापना की। मुगल आधिपत्य स्वीकार करने पर मोटा राजा उदयसिंह को 1583 ई. में यह जागीर के रूप में दे दिया गया।

महाराजा जसवंतसिंह की मृत्यु के बाद 1678 ई. में औरंगजेब ने इसे मुगल राज्य में सम्मिलित कर लिया। 1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु होने पर अजीतसिंह ने मुगल सूबेदार जफर कुली खाँ से इसे छीन लिया। तब से ये राठौड़ों का निवास स्थान रहा है।

ब्रिटिश साहित्यकार रूडयार्ड किपलिंग ने एक लंबा समय इस किले में बिताया। उसने इस किले को ” देवताओं, परियों और फरिश्तों द्वारा निर्मित माना है।” लाल पत्थरों से निर्मित मेहरानगढ़ स्थापत्य कला की दृष्टि से बेजोड़ है। महाराजा सूरसिंह द्वारा निर्मित मोतीमहल सुनहरी अलंकरण के लिए प्रसिद्ध है।

इसकी छत व दीवारों पर सोने की पॉलिश का कार्य महाराजा तख्तसिंह की देन है। अभयसिंह द्वारा निर्मित फूलमहल पत्थर पर बारीक खुदाई के लिए प्रसिद्ध है। तख्त विलास, अजीत विलास, उम्मेद विलास, आदि का भीतरी वैभव दर्शनीय है।

10. रणथम्भौर का किला (Ranthambore Fort)

 

राजस्थान के दुर्ग/किले rajasthan ke durg  में ‘ गिरि दुर्ग’ रणथम्भौर का किला रणथम्भौर हम्मीर की आन-बान और शान के लिए प्रसिद्ध है। सवाई माधोपुर से 10 किलोमीटर दूर अरावली पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा हुआ रणथम्भौर का किला विषम आकृति वाली ऊँची-नीची सात पर्वत श्रेणियों के मध्य स्थित है,

जिनके बीच में गहरी खाइयाँ और नाले हैं। यह किला एक ऊँचे पर्वत शिखर पर स्थित है और समीप जाने पर ही यह दिखाई देता है। रणथम्भौर दुर्ग (rajasthan ke durg) के निर्माण और निर्माताओं के संबंध में प्रामाणिक जानकारी अभी तक नहीं मिल सकी है।

इतिहासकारों का मानना है कि इस किले का निर्माण आठवीं शताब्दी में चौहान शासकों द्वारा करवाया गया। किला समुद्रतल से 481 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है तथा बारह किलोमीटर की परिधि में विस्तृत है।

इसके तीन तरफ गहरी खाइयाँ हैं, खाइयों के साथ परकोटा, फिर ढलवाँ जमीन और दुर्गम वन है। इसकी प्राचीर पहाड़ियों के साथ एकाकार सी लगती है। दुर्गम भौगोलिक स्थिति के कारण ही अबुल फजल ने लिखा है

” और दुर्ग नंगे हैं परंतु यह बख्तरबंद है।” रणथम्भौर का वास्तविक नाम रन्त: पुर है अर्थात् ‘ रण की घाटी में स्थित नगर’। ‘ रण’ उस पहाड़ी का नाम है जो किले की पहाड़ी से कुछ नीचे है एवं थंभ उसका, जिस पर यह किला बना है।

इसी से इसका नाम रणस्तम्भपुर हो गया जो कालान्तर में रणथम्भौर नाम से जाना गया। तराइन के द्वितीय युद्ध (1192 ई.) के बाद पृथ्वीराज चौहान तृतीय का पुत्र गोविन्दराज सामंत शासक के रूप में रणथम्भौर की गद्दी पर बैठा। तत्पश्चात् ऐबक, इल्तुतमिश और बलबन इस किले पर आधिपत्य रखने में सफल रहे।

1282-1301 ई. में हम्मीर देव चौहान यहाँ का शासक था। उस समय जलालुद्दीन खलजी ने 1292 ई. रणथम्भौर पर आक्रमण किया, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली। तब खिसियाकर उसने कहा ” ऐसे सौ किलों को भी वह मुसलमान के एक बाल के बराबर भी नहीं मानता है।

” 1301 ई. में हम्मीर के मंत्रियों के विश्वासघात के कारण अलाउद्दीन खलजी किले पर अधिकार करने में सफल रहा। इस समय हम्मीर की पत्नी रंगदेवी और पुत्री देवल दे के नेतृत्व में किले में जौहर हुआ जो रणथम्भौर का पहला साका कहलाता है।

अमीर खुसरो ने इस जौहर का उल्लेख अपनी कृति में किया। राणा कुम्भा व राणा सांगा का भी इस किले पर आधिपत्य रहा। 1534 ई. में मेवाड़ ने इसे गुजरात के शासक बहादुरशाह को सौंप दिया। 1542 ई. में यह शेरशाह सूरी एवं उसके बाद सुर्जनहाड़ा के अधिकार में रहा।

1569 ई. में रणथम्भौर पर मुगल आधिपत्य स्थापित हो गया। अकबर ने यहाँ शाही टकसाल स्थापित की। मुगलकाल में शाही कारागार के रूप में भी इसका उपयोग किया गया। मुगलों के पराभवकाल में जयपुर महाराजा माधोसिंह प्रथम (1750-1768 ई.) ने किले पर अधिकार कर लिया।

1947 तक यह जयपुर के आधिपत्य में ही रहा। नौलखा दरवाजा, हाथी पोल, गणेश पोल, सूरजपोल और त्रिपोलिया पोल किले के प्रमुख प्रवेश द्वार हैं।

किले की प्रमुख इमारतों में हम्मीर महल, रानी महल, हम्मीर की कचहरी, सुपारी महल, बादल महल, जौंरा-भौंरा, बत्तीस खंभों की छतरी, रनिहाड़ तालाब, पीर सदरूद्दीन की दरगाह और लक्ष्मीनारायण मंदिर हैं।

किले के पार्श्व में पद्मला तालाब स्थित है। भारत प्रसिद्ध त्रिनेत्र गणेश जी का मंदिर इसी किले में स्थित है। यूनेस्को की विरासत सम्बन्धी वैश्विक समिति की 36 वीं बैठक में 21 जून, 2013 को रणथम्भौर दुर्ग (rajasthan ke durg) को विश्व धरोहर घोषित किया गया है।

11. लोहागढ़ का किला, भरतपुर (Lohagarh Fort, Bharatpur)

Lohagarh Fort Bharatpur

राजस्थान के दुर्ग/किले rajasthan ke durg  में लोहागढ़ का किला ‘ राजस्थान का सिंहद्वार ‘ और’ पूर्वी सीमांत का प्रहरी ‘ लोहागढ़ का किला जाट राजाओं की वीरता और शौर्यगाथाओं को अपने में समेटे हुए है। भरतपुर के महाराजा सूरजमल द्वारा विनिर्मित यह किला अपनी अजेयता एवं सुदृढ़ता के लिए प्रसिद्ध रहा है।

इस किले ने मुगल आक्रमणों का सामना किया और अंग्रेज भी इसे जीत नहीं पाये। इसी कारण इसे लोहागढ़ की संज्ञा दी गई। किले की सुदृढ़ता के बारे में यह उक्ति लोक प्रसिद्ध है

दुर्ग भरतपुर अडग जिमि, हिमगिरि की चट्टान।

सूरजमल के तेज को, अब लौ करत बखान ॥

यह किला आयताकार है जो 6.4 किलोमीटर क्षेत्र में विस्तृत है। किला दोहरी प्राचीर से घिरा हुआ है। इसकी भीतरी प्राचीर ईंट-पत्थर की बनी हुई है और बाहरी प्राचीर मिट्टी की बनी हुई है। मिट्टी की प्राचीर पर तोप के गोलों का कोई असर नहीं होता था। किले के चारों ओर एक गहरी खाई है जिसमें पानी भरा रहता था।

चौड़ी किले गहरी की खाई प्राचीर और मिट्टी में 8 विशाल का विशाल बुर्जे, परकोटा 40 अर्द्धचन्द्राकार किले के सुरक्षा बुर्जे तथा कवच दो का विशाल कार्य दरवाजे करता था हैं ।

शाही किले खजाने का उत्तरी को द्वार लूटने अष्टधातु के साथ दरवाजा ऐतिहासिक महाराजा लाल किले जवाहरसिंह से उतार 1765 लाये ई थे ।  जवाहर बुर्ज जवाहरसिंह की दिल्ली विजय की स्मृति में निर्मित है।

फतेहबुर्ज हैं, जिनमें 1806 ई. में अंग्रेजों पर विजय के फलस्वरुप बनाई गई है किले में 10 दरवाजे है जिनमे सूरजपोल. प्रमुख है लोहागढ़ के किले पर मराठो के अनेक आक्रमण हुए पर उन्हें सफलता नहीं मिली

महाराजा रणजीत सिंह द्वारा जसवंत राव होल्कर को शरण देने से नाराज अंग्रेजों ने जनवरी 1805 से अप्रैल 1805 तक जनरल लेक के नेतृत्व में किले को धेरे रखा परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली विवश होकर अंग्रेजों से संधि करनी पढ़ी

जनवरी, 1826 में भरतपुर राजघराने के आंतरिक कलह का लाभ उठाकर अंग्रेजों ने इस किले पर अधिकार कर लिया। लोहागढ़ के किले में कोठी खास, महल खास, रानी किशोरी और रानी लक्ष्मी के महल का शिल्प दर्शनीय है।

गंगा मंदिर, राजेश्वरी देवी, लक्ष्मण मंदिर, बिहारी जी का मंदिर तथा जामा मस्जिद का शिल्प बेजोड़ है।

12. जैसलमेर का किला (Jaisalmer Fort)

Jaisalmer Fort

 

रावल जैसल द्वारा 1155 ई. में निर्मित जैसलमेर का किला सोनारगढ़ या सोनगढ़ कहलाता है। पीले पत्थरों से निर्मित होने के कारण सूर्य की किरणों में स्वर्णाभ प्रतीत होता है, जिससे इसे ‘ सोनारगढ़’ कहा गया है। चारों ओर थार मरुस्थल से घिरा जैसलमेर का किला ‘ धान्वन दुर्ग’ की श्रेणी में आता है।

यह किला 1500 x 750 वर्ग फीट के घेरे में निर्मित है तथा इसकी ऊँचाई 250 फीट है। किले में 99 बुर्ज हैं जिसमें अनेक छिद्र व मारक निशान बने हुए हैं। किले का दोहरा परकोटा ‘ कमरकोट’ कहलाता है।

त्रिकुटा पहाड़ी पर स्थित यह किला दूर से देखने पर अंगड़ाई लेते हुए सिंह के समान प्रतीत होता है। किले के निर्माण में गहरे पीले रंग के पत्थरों का प्रयोग किया गया , लेकिन पत्थरों की जुड़ाई में कहीं भी चूने का प्रयोग देखने को नहीं मिलता है।

जैसलमेर का किला ‘ ढाई साके’ के लिए प्रसिद्ध है। जैसलमेर का पहला साका अलाउद्दीन खलजी (1296-1316 ई.) के आक्रमण के दौरान हुआ। दूसरा साका फिरोजशाह तुगलक के आक्रमण (1351-1388 ई.) के दौरान हुआ जब रावल दूदा व त्रिलोकसी अन्य भाटी वीरों के साथ लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।

तीसरा साका  ‘ अर्द्धसाका’ कहलाता है, कारण वीरों ने लड़ते हुए वीरगति तो पाई लेकिन जौहर नहीं हुआ। रावल लूणकरण 1550 ई. में अमीर अली के साथ युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ। मगर भाटियों की विजय होने से महिलाओं ने जौहर नहीं किया।

किले के भीतर बने भव्य महलों में महारावल अखैसिंह द्वारा निर्मित सर्वोत्तम विलास (शीशमहल), मूलराज द्वितीय के बनवाये हुए रंगमहल और मोतीमहल भव्य जालियों और झरोखों तथा पुष्प लताओं के सजीव और सुंदर अलंकरण के कारण दर्शनीय हैं।

गजविलास व जवाहर विलास पत्थर के बारीक काम और जालियों की कटाई के लिए प्रसिद्ध हैं। बादल महल अपने प्राकृतिक परिवेश के लिए जाना जाता है। पार्श्वनाथ, संभवनाथ व ऋषभदेव मंदिर अपने शिल्प और सौंदर्य के कारण आबू के दिलवाड़ा मंदिरों का अहसास कराते हैं।

जैसलमेर के किले में हस्तलिखित ग्रंथों का एक दुर्लभ भण्डार है, जिसमें अनेक ग्रंथ ताड़पत्रों पर लिखे गये हैं तथा वृहद् आकार के हैं। इसे ‘ जिनभद्र सूरि ग्रंथ भण्डार’ कहा जाता है। जैसलमेर का किला भाटियों के शौर्य और बलिदान का साक्षी है

13. जालौर का किला (Jalore Fort)

Jalore Fort

पश्चिमी राजस्थान में अरावली पर्वत श्रृंखला की सोनगिरि पहाड़ी पर सूकड़ी नदी के दाहिने किनारे ‘ गिरि दुर्ग’ जालौर निर्मित है। सोनगिरि पहाड़ी पर निर्मित होने के कारण किले को ‘ सोनगढ़’ कहा जाता है। प्राचीन शिलालेखों में जालौर का नाम जाबालिपुर और किले का नाम सुवर्णगिरि मिलता है।

डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा परमारों को जबकि डॉ. दशरथ शर्मा प्रतिहार नरेश नागभट्ट प्रथम को इस किले का निर्माता मानते हैं। यह किला 800 गज लम्बा और 400 गज चौड़ा है। आसपास की भूमि से यह 1200 फीट ऊँचा है। मैदानी भाग में इसकी प्राचीर सात मीटर ऊँची है।

सूरजपोल किले का प्रथम प्रवेश द्वार है। इसके पार्श्व में एक विशाल बुर्ज है जो प्रवेश द्वार की सुरक्षा के काम आती थी। जालौर के किले पर परमार, चौहान, सोलंकियों, मुस्लिम सुल्तानों और राठौड़ों का आधिपत्य रहा। कीर्तिपाल चौहान के वंशज किले के नाम पर सोनगरा चौहान कहलाये।

जालौर का प्रसिद्ध शासक कान्हड़देव था, जिसे अलाउद्दीन खलजी के आक्रमण (1311 ई. में) का सामना करना पड़ा। छल-कपट से खलजी ने इस पर अधिकार किया, तब जालौर का ‘ प्रथम साका’ हुआ। मालदेव ने (1531-1562 ई.) मुस्लिम आधिपत्य समाप्त कर इस पर राठौड़ों का अधिकार स्थापित किया।

इस किले की अजेयता के बारे में ताज उल मासिर में हसन निजामी ने लिखा, ‘ यह ऐसा किला है जिसका दरवाजा कोई आक्रमणकारी नहीं खोल सका।

‘ जालौर के किले में महाराजा मानसिंह के महल और झरोखे, दो मंजिला रानी महल, प्राचीन जैन मंदिर, चामुण्डा माता और जोगमाया का मंदिर, संत मलिकशाह की दरगाह, परमार कालीन कीर्ति स्तम्भ आदि प्रमुख हैं।

अलाउद्दीन खलजी ने जालौर का नाम ‘ जलालाबाद’ कर दिया और यहाँ अलाई मस्जिद का निर्माण करवाया।

14. तारागढ़ का किला, बूंदी (Taragarh Fort, Bundi)

Taragarh Fort Bundi

तारागढ़ का किला पर्वत की ऊँची चोटी पर स्थित होने तथा धरती से आकाश के तारे के समान दिखाई देने के कारण ‘ तारागढ़’ कहलाया। गिरि दुर्ग तारागढ़ का निर्माण राव बरसिंह ने चौदहवीं शताब्दी में मेवाड़, मालवा व गुजरात की ओर से संभावित आक्रमणों से बूंदी की रक्षा हेतु करवाया।

लगभग 1426 फीट ऊँचे पर्वत शिखर पर निर्मित यह किला पाँच मील के क्षेत्र में फैला हुआ है। हाथी पोल, गणेश पोल तथा हजारी पोल किले के प्रमुख प्रवेश द्वार हैं। हाथी पोल के दोनों ओर दो हाथियों की प्रतिमाएँ महाराव रतनसिंह द्वारा स्थापित करवाई गई।

‘ वीर विनोद’ ग्रंथ के अनुसार महाराणा क्षेत्रसिंह (1364-1382 ई.) बूंदी विजय के प्रयास में वीरगति को प्राप्त हुए थे। उनके पुत्र महाराणा लाखा (1382-1421 ई.) काफी प्रयासों के बावजूद बूंदी के किले पर अधिकार नहीं कर सके।

अतः मिट्टी का नकली किला बनवाकर उसे ध्वस्त किया और अपनी प्रतिज्ञा पूरी की। लेकिन नकली किले की रक्षा के लिए भी कुम्भा हाड़ा ने अपने प्राणों की बाजी लगा दी तथा हाड़ाओं की प्रशस्ति में कही गई इस उक्ति को चरितार्थ कर दिखाया

किले के भीतर बने महल अपनी शिल्पकला एवं भित्ति चित्रों के कारण अद्वितीय हैं। इन महलों में छत्र महल, अनिरुद्ध महल, रतन महल, बादल महल और फूल महल प्रमुख हैं। अन्य भवनों में जीवरखा महल, दीवान ए आम, सिलहखाना, नौबतखाना, दूधा महल, अश्वशाला आदि प्रमुख हैं।

चौरासी खंभों की छतरी, शिकार बुर्ज, फूल सागर, जैत सागर और नवल सागर जलाशय बूंदी की छटा में चार चाँद लगाते हैं।

15. नागौर का किला (Nagaur Fort)

धान्वन दुर्ग ‘ नागौर का निर्माता चौहान शासक सोमेश्वर के सामंत कैमास को माना जाता है। किले की नींव 1154 ई. में रखी गई। किले का परकोटा लगभग 5000 फीट लम्बा है तथा इसकी प्राचीर में 28 विशाल बुर्जे बनी हुई हैं।

किले के चारों ओर दोहरी प्राचीर निर्मित है। किले में 6 विशाल दरवाजे सिराईपोल, बिचलीपोल, कचहरीपोल, सूरजपोल, धूपीपोल और राजपोल हैं। यह किला 2100 गज के घेरे में फैला हुआ है।

किले में 1570 ई. में अकबर ने प्रसिद्ध’ नागौर दरबार ‘ का आयोजन किया, जहाँ अनेक शासकों ने मुगल आधिपत्य स्वीकार किया। महाराजा गजसिंह के अनुरोध पर मुगल सम्राट शाहजहाँ ने नागौर का किला अमरसिंह को दे दिया।

अमरसिंह की शूरवीरता के कारण नागौर प्रसिद्ध हो गया। जोधपुर के महाराजा अभयसिंह (1724-1748 ई.) ने इसे अपने भाई बखतसिंह को जागीर में दे दिया। इसके बाद नागौर पर अधिकांशतः राठौड़ों का ही अधिकार रहा। नागौर के किले के भीतर सुंदर भित्तिचित्र बने हुए हैं।

इनमें बादल महल और शीश महल के चित्र दर्शनीय हैं। इन चित्रों में राजसी वैभव और लोक जीवन का सुंदर समन्वय दिखलाई पड़ता है। पेड़ के नीचे संगीत सुनते प्रेमी युगल, उद्यान में हास परिहास करती रमणियाँ, राजदरबार के दृश्य,

विविध नस्लों के चुस्त घोड़े, बेलबूंटों और पुष्पलताओं का चित्रण, नृत्य और गायन में तल्लीन एवं उद्यान में विहार करती नायिकाओं का चित्रण सुन्दर और कलापूर्ण हैं।

मुगल बादशाह अकबर ने किले के भीतर एक सुन्दर फव्वारा बनवाया। नागौर का किला इतिहास और संस्कृति की एक अमूल्य धरोहर संजोये हुए है।

16. नाहरगढ़ का किला, जयपुर (Nahargarh Fort, Jaipur)

1734 ई. में सवाई जयसिंह ने मराठा आक्रमणों से जयपुर की रक्षा के लिए अरावली पर्वतमाला की एक पहाड़ी पर नाहरगढ़ का निर्माण करवाया। नाहरसिंह भोमिया के नाम पर किले का नाम नाहरगढ़ पड़ा।

मान्यता है कि नाहरगढ़ के किले के निर्माण के समय जुझार नाहरसिंह ने किले के निर्माण में विघ्न उपस्थित किया, तब तांत्रिक रत्नाकर पौण्डरिक ने नाहरसिंह बाबा को अन्यत्र जाने के लिए तैयार कर लिया और उनका स्थान अम्बागढ़ के निकट एक चौबुर्जी गढ़ी में स्थापित कर दिया

जहाँ वे लोक देवता के रूप में पूजे जाते हैं। नाहरगढ़ अपने शिल्प एवम् सौन्दर्य से परिपूर्ण भव्य महलों के लिए प्रसिद्ध है। नाहरगढ़ के अधिकांश राजप्रासाद महाराजा सवाई रामसिंह द्वितीय तथा सवाई माधोसिंह प्रथम द्वारा अपनी नौ पासवानों के नाम पर बनवाये गये।

जिनके नाम सूरज प्रकाश, खुशहाल प्रकाश, जवाहर प्रकाश, ललित प्रकाश, आनन्द प्रकाश, लक्ष्मी प्रकाश, चाँद प्रकाश, फूल प्रकाश और बसन्त प्रकाश हैं, जो शायद पासवानों के नाम हैं।

इन महलों के स्थापत्य की प्रमुख विशेषता उनकी एकरूपता, रंगों का संयोजन तथा ऋतुओं के अनुसार इनमें हवा और रोशनी की व्यवस्था है। किले के अन्य भवनों में हवा मंदिर, महाराजा माधोसिंह का अतिथिगृह, सिलहखाना आदि प्रमुख हैं।

17. बाला किला, अलवर (Bala Fort, Alwar)

अलवर का बाला किला अरावली पर्वतमाला की 1000 फीट ऊँची पहाड़ी पर बना हुआ है। जनश्रुति के अनुसार आमेर नरेश कांकिलदेव के पुत्र अलघुराय ने 1049 ई. में पहाड़ी पर किला बनाकर उसके नीचे एक नगर बसाया जिसका नाम अलपुर रखा। ऐसा माना जाता है

कि अलावल खाँ ने आक्रमण कर निकुम्भों को मार भगाया और 1492 ई. में कब्जा कर अरावली पर्वतमाला पर विशाल परकोटा वाला किला बनवाया। अलावल खाँ के पुत्र हसनखाँ मेवाती ने 1524 ई. में बाला किला (कुँवारा किला) और अलवर शहर का विकास किया।

1527 ई. में बाबर एक सप्ताह तक अलवर के बाला किला में ठहरा था। बाबर ने अपने बेटे हुमायूँ को मत्स्य का खजाना यहीं प्रदान किया। किले की प्राचीर लगभग 9 किमी. की परिधि में है जिसमें 15 बड़ी बुर्जे तथा 52 छोटी बुर्जे बनी हुई हैं। प्राचीर में शत्रु पर गोले बरसाने के लिए छिद्र बने हुए हैं।

किले की दूसरी रक्षापंक्ति के रूप में आठ बुर्जे हैं, जिनमें काबुल, खुर्द और नौगुजा बुर्ज प्रमुख हैं। किले के प्रमुख प्रवेश द्वार पश्चिम में चाँदपोल, पूर्व में सूरजपोल, दक्षिण की ओर लक्ष्मणपोल और जयपोल हैं।

उत्तर की ओर अंधेरी दरवाजा है जहाँ दो पहाड़ियाँ होने के कारण सूर्य का प्रकाश नहीं पहुँचने से अंधेरा रहता है। खानवा के युद्ध में राणा सांगा की ओर से लड़ने वाला हसन खाँ मेवाती यहीं का प्रभारी था। खानवा विजय के बाद यह किला बाबर ने अपने पुत्र हिन्दाल को दे. का दिया।

अधिकार 1775 ई रहा. से। किले भारत के की भीतर स्वाधीनता निकुंभ तक शासकों इस किले द्वारा पर निर्मित कछवाहों महल की परंपरागत नरूका हिन्दू शाखा स्थापत्य के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।

इनके निर्माण में सामरिक सुरक्षा और रिहायशी के सुविधाओं प्रमुख का जलस्रोत समन्वय हैं। दिखलाई किले में पड़ता सीतारामजी है। सलीम का सागर मंदिर तालाब दर्शनीय तथा है। सूरजकुण्ड किले के प्रमुख जलस्त्रोत है किले में सीतारामजी का मंदिर भी दर्शनीय है |

18. भैंसरोडगढ़ का किला (चित्तौड़गढ़) Bhainsrodgarh Fort Chittorgarh

चम्बल और बामनी नदियों के संगम स्थल पर अरावली पर्वतमाला की घाटी में भैंसरोडगढ़ ‘ जल दुर्ग ‘ (rajasthan ke durg) स्थित है। कर्नल टॉड ने जनश्रुति के आधार पर व्यापारी भैंसाशाह और रोड़ा चारण को इस किले का निर्माता माना है।

यह किला. अधिकांशतः मेवाड़ के अधिकार में ही रहा। मराठों ने इस किले का घेरा डाला मगर आदिवासियों के प्रबल प्रतिरोध के कारण उन्हें पीछे हटना पड़ा।

19. मांडलगढ़ का किला (भीलवाड़ा) Mandalgarh Fort Bhilwara

‘ वीर विनोद ‘ ग्रंथ के अनुसार अजमेर के चौहान शासकों ने माण्डलगढ़ के’ गिरि दुर्ग ‘ का निर्माण करवाया। मण्डलाकृति का होने के कारण इसका नाम माण्डलगढ़ पड़ा। जनश्रुति के अनुसार मांडिया भील के नाम पर यह किला माण्डलगढ़ कहलाया।

यह अरावली की उपत्यकाओं में समुद्रतल से 1850 फीट ऊँची पहाड़ी पर बना हुआ है और लगभग एक किलोमीटर क्षेत्र में विस्तृत है। मुगल बादशाहों ने माण्डलगढ़ को मेवाड़ के प्रवेश द्वार के रूप में अपने सैनिक अभियानों का केन्द्र बनाया। 1

576 ई. में हल्दीघाटी युद्ध से पूर्व मानसिंह ने एक महीने तक मांडलगढ़ में रहकर शाही सेना को तैयार किया। महाराणा राजसिंह (1652-1680 ई.) ने मुगलों से माण्डलगढ़ छीन लिया।

तत्पश्चात् यह किला किशनगढ़ नरेश रूपसिंह राठौड़ की जागीर में रहा। किले के प्रमुख भवनों में ऋषभदेव का जैन मंदिर, दो प्राचीन शिव मंदिर, ऊंडेश्वर और जलेश्वर महादेव, सैनिकों के आवासगृह, अन्न भंडार, महल आदि हैं।

20. विजय मंदिर का किला (बयाना-भरतपुर) Vijay Mandir Fort Bayana-Bharatpur

यादववंशी राजा विजयपाल द्वारा 1040 ई. में निर्मित यह पर्वतीय दुर्ग (rajasthan ke durg) अपने निर्माता के नाम पर विजय मंदिर कहलाया। इल्तुतमिश, बलबन, फिरोज तुगलक, राणा सांगा, मुगल एवं जाट शासक इस किले के स्वामी रहे।

विजय मंदिर किले के भीतर बने भवन हिन्दू-मुस्लिम स्थापत्य कला के समन्वय को प्रकट करते हैं। ऊषा मंदिर, भीमलाट, राजप्रासाद, सैनिक आवासगृह तथा अन्य देवमंदिर हिन्दू स्थापत्य के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।

इब्राहीम लोदी के शासनकाल में बनी लोदी मीनार, बारहदरी, सराय सादुल्ला, अकबरी छतरी तथा जहाँगीरी दरवाजा आदि मुस्लिम वास्तुकला के उदाहरण हैं |